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Saturday, August 14, 2010

आजादी की असल तस्वीर

भारत स्वतंत्रता दिवस की 63वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। यह आजादी एक सदी से भी अधिक दमनकारी औपनिवेशिक शासन के बाद अगस्त 1947में हासिल हुई। स्वतंत्र भारत की राजनीति धीरे-धीरे गर्त में डूबती जा रही है और इसकी छवि कलंकित होती जा रही है,

 जिससे आम आदमी के मन में निराशा घर कर गई है। इस प्रकार विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र त्रासदी का शिकार हो गया है, जबकि देश की आर्थिक गतिशीलता और इसके मेहनती नागरिकों की उद्यमिता अभी कायम है, किंतु घरेलू राजनीतिक संस्कृति और कानून के प्रति सम्मान की भावना उन नियामक मूल्यों से घटती जा रही है जो भारत की आजादी के साथ स्थापित हुए थे। उपलब्धियां अपनी जगह हैं, लेकिन अनेक मामलों में राजनीतिक वर्ग का रवैया शर्मसार करने वाला रहा है। ऐसे मामलों की सूची लंबी है, लेकिन ताजा उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में घपले-घोटाले की लंबी फेहरिश्त भी है और भोपाल गैस कांड के मुख्य आरोपियों का कानून के फंदे से बच निकलना भी।

स्वतंत्र भारत ने एक संविधान की रचना की,जिसे विश्व का सर्वाधिक बुद्धिमत्तापूर्ण राजनीतिक-कानूनी दस्तावेज माना जाता है। इसमें जिस समतामूलक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की वचनबद्धता है वह अपने आप में असाधारण अवधारणा है। साथ ही यह डॉ.भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में संविधान के निर्माताओं के प्रति सम्मान का भी प्रतीक है। लोकतंत्र कानून की श्रेष्ठता के सम्मान और इन कानूनी प्रावधानों के उचित व निष्पक्ष क्रियान्वयन का धारक होता है। इस तरह अगर अगस्त 1947 में स्वतंत्रता की भावना को सही दिशा में पोषित किया जाता तो जनवरी 1950 के साथ इसका नाजुक रिश्ता कायम रहता।

यह विडंबना है कि साठवें साल में, जिसे भारतीय परंपरा में षष्ठी-पूर्ति कहा जाता है, भारतीय राजनीति और संविधान में निहित कानूनों के प्रति प्रतिबद्धता अब तक के निम्नतम स्तर तक पहुंच गई है। सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता। अगर ऐसा किया जाता है तो इससे राष्ट्र और उस तिरंगे का अहित होगा जो रविवार को प्रधानमंत्री लालकिले की प्राचीर से फहराएंगे। कुछ आंकड़े भारत और इसकी राजनीति की दारुण दशा का वर्णन कर रहे हैं। अगर लोकतंत्र कानून से जुड़ा मसला है और आम नागरिक ब्रिटिश औपनिवेशिक सरीखे दमन से मुक्ति चाहता है तो यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि आज भारतीय नागरिक उससे कहीं अधिक असुरक्षित हैं जितना 60 साल पहले थे। भारत की न्यायिक व्यवस्था में बहुत सी विकृतियां व खामियां हैं और त्वरित व निष्पक्ष न्याय की इसकी क्षमता में लोगों का विश्वास डिगता जा रहा है। निचली अदालतों में भ्रष्ट आचरण आम हो गया है। लंबित मामलों का बढ़ता बोझ भयभीत करने वाला है। 2009 के अंत में भारत की सभी अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित थे। इनमें से 2.7 करोड़ मामले निचली अदालतों में हैं। 30 प्रतिशत मामलों में सरकार शामिल है। अगर मौजूदा व्यवस्था में अदालतें सप्ताह में सातों दिन और चौबीसों घंटे काम करें तो भी लंबित मामलों को निपटाने में सौ साल लग जाएंगे। यह है कानून की पवित्रता और सुरक्षा!

इसी प्रकार कानून के निर्माण की जिम्मेदारी संभालने वाली विधायिका ने जनता को प्रभावित करने वाले बहुत से कानून सीधे-सीधे औपनिवेशिक युग से उठा लिए हैं। इनमें लोगों को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली दंड संहिता और पुलिस प्रावधान शामिल हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज की व्यवस्था मानवद्वेषी हो गई है। बहुत से भारतीयों का यह मानना है, जो सही भी है, कि भारत में अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग कानून है। सभी लोगों की समता और स्वतंत्रता का अगस्त 1947 का स्वप्न टूट चुका है। भारत में राजनेताओं को अक्सर कानून से ऊपर माना जाता है। अगर किसी राजनेता के खिलाफ कानून काम करता भी है तो वह सत्ताधारी दल द्वारा राजनीति विद्वेष का परिणाम होता है।

कुछ और आंकड़े लोकतंत्र की व्यथा-कथा बयान करते हैं। 2008 में लोकतंत्रों के वैश्विक अध्ययन में यह बात सामने आई कि भारतीय संसद में चुने हुए सदस्यों में से 80प्रतिशत पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें मानव तस्करी, दुष्कर्म और हत्या जैसे जघन्य मामले शामिल हैं। राज्यवार स्थिति और भी हताश करने वाली है। उत्तर प्रदेश में 'राजनीति में सब कुछ जायज है' अब मानक बन चुका है। अध्ययन से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के 2002 के विधानसभा चुनाव में 403 में से 206 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। इसका मतलब यह हुआ कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में साफ-सुथरी छवि वाले सदस्यों के मुकाबले दागदार छवि वाले सदस्यों की संख्या अधिक थी। यूपी के 2007 की विधानसभा चुनाव में आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों की संख्या में 74 प्रतिशत वृद्धि हो गई। ये टिकट मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों ने दिए थे।

भारतीय राजनीति की दुर्दशा इस तथ्य से और भी बढ़ जाती है कि चुने हुए जनप्रतिनिधि चाटुकार और भ्रष्ट नौकरशाहों के सहारे न केवल अपने लाभ के लिए कानून का दुरुपयोग करते हैं, बल्कि खुलेआम कानून अपने हाथ लेने से भी गुरेज नहीं करते। अमित शाह-सोहराबुद्दीन प्रकरण पर वर्तमान विवाद और कर्नाटक में खनन कांड में सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं की संलिप्तता तो महज एक बानगी भर है।

आंतरिक सुरक्षा की स्थिति दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही है। इसका सीधा संबंध कुशासन और विषम सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जुड़ा है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर से लेकर पश्चिम बंगाल में राजनीतिक लाभ के लिए देश की सुरक्षा को ताक पर रख दिया गया है। तात्कालिक लाभ के लिए राष्ट्रीय हितों की बलि आज की राजनीति की विशेषता बन गई है। इसका खतरनाक पहलू यह है कि इस ढर्रे को अपरिहार्य मान लिया गया है इसलिए इसे लेकर जनता में घोर निराशा घर कर चुकी है।

एक स्वस्थ और ऊर्जावान लोकतंत्र में राज्य, बाजार और समाज के विभिन्न अंगों के बीच संतुलन कायम रखना बहुत जरूरी है, लेकिन अफसोस की बात है कि आज भारत में विधायिका लोगों का विश्वास खो चुकी है, जो इसकी पहचान का केंद्र-बिंदु है। कार्यपालिका समझौतों पर टिकी है। खरे व ईमानदार व्यक्तियों को इस तंत्र में खपने के लिए अपनी योग्यता और ईमानदारी को छिपाना पड़ रहा है। भारत में कानून एवं व्यवस्था को लकवा मार गया है। न्यायिक सक्रियता के कुछेक उदाहरण व्यवस्था में विद्यमान भारी विसंगतियों की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकते हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ-मीडिया-आशा की एकमात्र किरण नजर आता था, किंतु हालिया कुछ घटनाओं से यह साफ हो जाता है कि यह भी अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन नहीं कर रहा है। बाजारवाद के रोग ने मीडिया की भूमिका को कलंकित कर दिया है। इस प्रकार के भारत में इस हताशा-निराशा के लिए क्या नागरिकों को दोषी ठहराया जा सकता है, जो पूछ रहे हैं कि यह आजादी कैसी है?

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