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Sunday, July 18, 2010

गुरु पूर्णिमा



         आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यानी व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है कि प्राचीन काल में शिक्षा की गुरु शिष्य परम्परा के अनुसार ग्रहण की जाती थी। इस दिन शिष्य गण अपने ग्राम या आवास से लौटकर उनके आश्रम में जाकर उनकी प्रसन्नता के लिए अन्न वस्त्र और द्रव्य से उनका पूजन करते थे। उसके उपरान्त चार महीने के विकट परिश्रम से उन्हें धर्म ग्रन्थ, वेद शास्त्र तथा अन्य विद्याओं की जानकारी और शिक्षण प्रशिक्षण का फल गुरु महाराज के आश्रम में मिलता था।

    शिक्षा दीक्षा की इस अटूट परम्परा को आज भी हमारे कई गुरुकुल यथा पूर्व बनाए हुए हैं। हरिद्वार , ऋषिकेश व उत्तराखंड के कई स्थलों में और काशी, बनारस एवं उज्जैनी में भी आज भी विद्यार्थीगण गुरुओं के आश्रम में जाकर वेद - पुराण , ज्योतिष , आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। गुरु पूर्णिमा के दिन प्रधान गुरुओं की प्रतिष्ठा करके उन्हें अच्छे आसन में बैठाकर फूल माला अर्पित की जाती है। आश्रम के सभी शिष्यगण क्रमवार आकर अपनी गुरुदक्षिणा उन्हें समर्पित कर उनका पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं तथा ज्ञान , विज्ञान, धर्म शास्त्र जैसे गूढ़ विषयों में पारंगत होने के लिए दिनरात एक करके परिश्रम करते हैं।

        गुरु कृपा से प्राप्त होने वाली यह विद्या न केवल भारत में बल्कि चीन , जापान , इंडोनेशिया , श्रीलंका , मलयेशिया , अरब , इंग्लैंड और अमेरिका आदि देशों के शिष्यगण भी प्राप्त करने के लिए प्राचीनकाल में भारत आए थे और उनकी यह अभिरुचि आज भी हमारे आश्रम मठ मंदिर और गुरुद्वारे एवं मस्जिद आदि में बरकरार है। धर्मो की शिक्षा के साथ ही वेद ,राजनीति ,अर्थशास्त्र, चिकित्सा, ज्योतिष जैसे विषय भी गुरु पूर्णिमा के तत्वावधान में भारत के विभिन्न धर्माचार्यों एवं गुरुओं के आश्रमों में निरन्तर रूप से पढ़ाए जा रहे हैं। आजकल ट्रस्ट एवं सम्पन्न गुरुओं के आश्रम एवं श्रद्धाधाम में अनेक प्रकार के तकनीकी और गैर तकनीकी विषयों पर गुरु शिष्य परम्परा के अनुसार शिक्षा दी जा रही है। गुरु पूर्णिमा इस लक्ष्य को प्राप्त करने में आज भी उतनी ही कारगर है , जितनी की हजारों साल पहले थी।