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Thursday, April 29, 2010

यथार्थ

हम यथार्थ को यथार्थ कह सकें, साथ-साथ यथार्थ को कहने का तरीका भी हमारा प्रिय हो, अप्रिय न हो। मानदंड इसी से बदला जा सकता है। बड़ा उसी को मानें, जिसका आचार-विचार और चिंतन अच्छा है। धन, सत्ता, ऎश्वर्य, बल आदि के आधार पर बड़ा होने का मानदंड मानेंगे तो वही स्थिति बनेगी, जैसी आज है। लोकतंत्र बहुत बढिया प्रणाली है अगर उपयुक्त व्यक्तियों के हाथ में लोकतंत्र की कमान हो तो थोड़े ही दिन में देश का कायाकल्प हो सकता है किन्तु विडम्बना यह है कि इस प्रणाली में उन लोगों को अवसर नहीं मिलता जो सदाचारी हैं। यहां अवसर उन लोगों को मिलता है जो अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कुशल होते हैं, हवा के अनुकूल जो पीठ कर लेते हैं। जो समाज, देश की नहीं, मात्र अपनी सोचते हैं, यह लोकतंत्र की एक बड़ी समस्या है। इस समस्या पर विचार करते हुए अहिंसा के परिपाश्र्व में सारा चिंतन करें तो लगेगा कि मानदंडों को बदलना जरू री है। उनका परिवर्तन विवेक से किया जाना चाहिए। किस व्यक्ति को किस शक्ति या गुण के आधार पर कैसा स्थान मिलना चाहिए, यह निर्धारण जरू री है। जिसके पास सत्ता है, उसे गौण किया जाए तो भी काम नहीं चलता। धन वाले को महत्व न मिले तो भी समाज का काम नहीं चलता। अपेक्षा सबकी है। किसी को नकारा नहीं जा सकता, किन्तु जहां व्यक्ति का प्रश्न है कि कौन व्यक्ति अनुकरणीय है, वहां मानदंड सदाचार और नैतिकता का ही होगा। बीमारी है तो परामर्श किसी वैद्य या डॉक्टर का ही लेना पड़ेगा, किसी पंडित या पुरोहित का नहीं। कहां किस व्यक्ति का परामर्श लेना है, इसके पृथक् मानदंड हैं।

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