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Saturday, January 2, 2010

नए साल की उम्मीदें

भारत एक समस्या प्रधान देश है। अस्सी फीसदी आबादी और सिस्टम समस्याग्रस्त है। समस्याओं की इतनी निरंतरता किसी देश में नहीं मिलेगी। गांवों में आज भी सवर्ण सामंत दलितों को मार देता है। नौकरशाही में आज भी राठौड़ जैसे औपनिवेशिक मानसिकता वाले अफसर हैं और उद्योग के क्षेत्र में बगैर काले धन के इन्फोसिस का साम्राज्य खड़ा करने वाले नारायणमूर्ति भी हैं। साल बदलने से समस्याएं नहीं बदलतीं, लेकिन कुछ न कुछ ऐसा बदल जाता है, जिससे एक मुल्क के रूप में भारत के प्रति हमारा गर्व भाव और बढ़ जाता है। इक्कीसवीं सदी का बेसब्री से भारत ही इंतजार कर रहा था। इस सदी के पहले दशक में भारत ने अपनी बेकरारी का नतीजा भी दिखा दिया है। भारत का गैर-राजनीतिक आंदोलनकारी तबका इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी देन है। यह तबका भले वोट न देता हो, लेकिन यह दिल्ली की मॉडल जेसिका लाल की हत्या से लेकर मुंबई हमले और आजकल हरियाणा के पूर्व डीजीपी राठौड़ के खिलाफ कार्रवाई का दबाव बनाने वाला एक अलग से क्लास बन गया है। एक ऐसा निरपेक्ष आंदोलन, जिसमें सभी दल के नेता टीवी स्टूडियो के जरिए शामिल होते हैं। उसका समर्थन करते हैं और अपनी गलतियों को स्वीकार कर कार्रवाई का वादा भी करते हैं। मोमबत्ती भारत के शहरी तबके की नागरिकता का प्रतीक बन गई है। अगले साल मोमबत्ती की ताकत और मजबूत होगी। लोग शहर की खराब सड़कों और भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ भी मोमबत्तियां लेकर निकलेंगे। इंटरनेट के किसी अज्ञात मेल से भ्रष्टाचार मुक्त भारत का अभियान चल जाएगा। शहरी नागरिक अपने लिए नए नए मुद्दे लाएंगे और सरकार पर दबाव बनाएंगे। लोकतांत्रिक सरकार जनमत की आकांक्षाएं पूरी करने वाली एजेंसी बन जाएगी। पार्टी का मेनिफेस्टो कम और मोमबत्तियों का मेनिफेस्टों ज्यादा मायने रखेगा। यह ताकत कमजोर पड़ी तो अफसरशाही और राजनीति निरंकुश हो जाएगी। लेकिन क्या इसके लिए निरपेक्ष आंदोलन ही आखिरी रास्ता है। विपक्ष की आवाज कहां हैं। दो हजार दस की एक बड़ी चुनौती होगी मजबूत विपक्ष का निर्माण करना। बीजेपी के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी जोश दिखाएंगे और वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए प्रदेश मुख्यालयों को जोड़कर राष्ट्रीय आंदोलनों की रूपरेखा तय करेंगे, लेकिन झारखंड में सोरेन से हाथ मिलाकर गडकरी ने नए वैचारिक जमीन की तलाश की सीमाएं भी खींच दी है। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि यह युवा नेता बीजेपी को चमका देगा। पार्टी खंडन और निंदा करने वाले नेताओं के चरित्र से निकलकर आंदोलन करने वाले नेताओं के चरित्र को अपनाएगी। प्रेस कांफ्रेंस कम और आंदोलन ज्यादा होंगे। अतीत के मुद्दों को लेकर नहीं, बल्कि भविष्य की तस्वीर को लेकर। कमजोर विपक्ष का खमियाजा महंगाई से तड़पती जनता को काफी उठाना पड़ा है। मंदी में लाखों लोगों की नौकरियां गई, लेकिन विपक्ष ने आवाज नहीं दी। एक सकारात्मक और उदारवादी विपक्ष की उम्मीद की जानी चाहिए। पुलिस सुधार की प्रक्रिया तेज हो जाएगी। हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौड़ के बहाने ही सही पुलिस की भूमिका को लेकर कई पहल होंगी। लेकिन क्या आप यकीन कर सकते हैं कि हमारी पुलिस इतनी जल्दी बदल जाएगी? क्या थाने बिकने बंद हो जाएंगे? क्या कोई दारोगा रिश्र्वत लेना बंद कर देगा? पुलिस की जिप्सियों पर आपके लिए और हमेशा के लिए लिख देने से पुलिस की छवि नहीं बदलेगी। पुलिस के साथ-साथ न्यायपालिका में सुधार का मामला भी इसी साल भारत को तय करना चाहिए। दिनाकरन जैसे जज के खिलाफ कार्रवाई होगी। इसे राजनीतिक बनाने के मामले अनसुने कर दिए जाएंगे। मार्च महीने में जब सीबीएसई के इम्तहान होंगे तो लाखों बच्चे नंबर लाने या टॉप करने के दबाव से मुक्त होंगे। नए साल का यह नया तोहफा होगा। ग्रेडिंग सिस्टम के गुण-दोष सामने आएंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि दसवीं और बारहवीं के इम्तहान भयोत्पादन नहीं करेंगे। इस भय के दोहन के लिए बने गेस पेपर, क्वेश्चन बैंक, कोचिंग संस्थान और नकल कराने वाले ठेकेदार आदि की भूमिका खत्म तो नहीं होगी, लेकिन कुछ कमजोर होगी। यह भी उम्मीद करना बेकार है कि इम्तहान के लिए जाने से पहले बच्चे-चंदन टीका नहीं लगाएंगे। ज्योतिष और पुजारियों की भूमिका नए साल में भी रहेगी। जैसा कि मैंने कहा कि समस्याओं की निरंतरता इस देश की खूबी है। हम पूरी तरह मुक्त नहीं होना चाहते हैं। नई चादर खरीद कर लाते हैं, लेकिन पुरानी भी आलमारी में ठूंसकर रखते हैं। गृहमंत्री पी चिदंबरम नक्सलवाद के खिलाफ अपनी योजना को जमीन पर उतार पाएंगे या नहीं, इसका इंतजार रहेगा। दंडकारण्य के जंगलों में अ‌र्द्धसैनिक बल घुस पाएंगे या नहीं, इसके लिए व्यापक राजनीतिक सहमति अभी तक नहीं बनी है। अगले महीने, अगले महीने करते-करते साल बीत गया और नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई। उन्हें आतंकवादी बताकर बातचीत की पेशकश की गई। चिदंबरम इस बार इस समस्या को जड़ से मिटा देना चाहते हैं, लेकिन अब इस मुद्दे पर ऐसे चुप हो गए हैं, जैसे कभी बोला ही नहीं। देखना होगा कि अगले एक साल में वे गृहमंत्रालय को राजभाषा और जनसंख्या गिनती के कामों से मुक्त करा पाते हैं या नहीं। उम्मीद की जानी चाहिए कि गृहमंत्रालय का इस्तेमाल राजनीतिक हवा पता करने के रूप में नहीं होगा। मंदी आई है या गई है, पूरे साल नेताओं से लेकर बाजार पंडितों ने कंफ्यूजन में रखा। विकास दर के अलग-अलग आंकड़े पेश किए गए हैं। छह से आठ फीसदी के बीच भविष्यवाणियां होती रहीं। शेयर बाजार धीरे-धीरे चढ़ने लगा, लेकिन शहरी और ग्रामीण गरीबों की संख्या कैसे चालीस फीसदी से अधिक हो गई, इस पर कोई नहीं बोला। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की आधी से अधिक जनता गरीब है। फिर विकास दर का क्या मतलब। उपभोक्ता का सामान बेचकर कोई मुल्क विकास की सीढि़यां नहीं तय कर सकता। सरकारी योजनाएं आज भी चरमरा रही हैं। गांव-गांव में झोपडि़यों में खुल रहे इंग्लिश मीडियम स्कूल बता रहे हैं कि सरकारी स्कूलों के मास्टरों ने शिक्षा का क्या हाल कर रखा है। सरकारी स्कूलों की उपयोगिता उस वर्ग में समाप्त हो गई है, जो टैक्स देने के बाद दो हजार रुपये का नर्सरी स्कूल का प्रोस्पैक्टस खरीद लेता है। क्या कपिल सिब्बल अपने सुधारों से सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार कर पाएंगे और क्या यह अकेले कपिल सिब्बल की समस्या है। यूपी और मध्य प्रदेश की आधी जनता दसवीं में फेल हो जाती है। शहरी आबादी की संख्या इस साल भी बढ़ेगी। देश के किसी भी शहर में जाइए, ट्रैफिक जाम की योजनाबद्ध बदइंतजामी विशुद्ध भारतीय खोज कही जा सकती है। दुकानों के होर्डिग्स फ्लैक्स के भद्दे पोस्टरों से भरे पड़े हैं। सड़कों ने जवाब दे दिया है और पटना से लेकर मेरठ तक की सड़कें जाम से भरी पड़ी है। शहरों को बदलने के नाम पर फ्लाईओवर बनाकर योजनाकार गायब हो जाते हैं। तमाम फ्लाईओवर नाकाम रहे हैं। हमारे शहर भद्दे लगते हैं। नागरिकों को अब बेहतर शहर के लिए दबाव डालना पड़ेगा, लेकिन इस साल भी दस से पंद्रह घंटे की बिजली कटौती को बर्दाश्त करना होगा। टेलीविजन बदलेगा। रियलिटी टेलीविजन का अब और दौर चला तो जल्दी ही अखिल भारतीय टेलीविजन कंपटीशन कैडर बनाना पड़ जाएगा। यूपीएससी जैसी संस्थाएं कई तरह के बकवास आइडियाओं पर कंपटीशन कराने लगेंगी। अभी से ही नाना प्रकार के टेलीविजन कंपटीशन जीत चुके लोग मुंबई-दिल्ली में भटकने लगे हैं। जिस तरह से रियलिटी शो के कंपटीशन में प्रतियोगियों को रोते हुए देखता हूं, उससे यही भ्रम हो जाता है कि टीवी शो में विजयी नहीं हुए तो कुरुक्षेत्र की जीत भी बेकार है। हम सब सफल होना चाहते हैं। भारत को सफल मुल्क के रूप में देखना चाहते हैं और अपने बेटे-बेटियों को सफल गायक-डांसर और अफसर के रूप में देखना चाहते हैं। मामूली-सी कामयाबी भी सामान्य नागरिकों को किन्हीं महान क्षणों में अवतार लिए जाने के अहसास से भर देती है। ऐसे मौकों पर पूर्वजों से लेकर गुरुओं तक का आभार प्रकट करने का मंचीय संस्कार इस साल भी नहीं जाएगा, भारत को अब सफलता सामान्य तरीके से स्वीकार करनी चाहिए। मुल्कों की रेस में दौड़ता हुआ भारत कहीं नहीं पहुंचेगा। उसकी गंगा सूख गई है। यमुना नाली हो गई है। पहाड़ों से पेड़ गायब हो गए हैं। जो भारत था, उसे भी बचाना होगा। इसके लिए नए-नए सवालों से जूझना होगा। तभी तो सीरियल बदल रहे हैं। एक विज्ञापन आपने भी देखा होगा, जिसमें कहा जाता है कि ब्राह्मण का लड़का और कायस्थ की बेटी, शादी नहीं हो सकती क्या। अब हमें ऐसे सवालों पर खुलकर बहस करनी चाहिए। दिल्ली में एक महिला डाक्टर को गर्भ में बेटी मार दिए जाने के लिए मारा-पीटा जाता है। बेटियों को अब अपने मां-बाप से पूछना चाहिए कि मेरे पैदा होने पर खुश हुए थे या नहीं। उन्हें लिखवाना चाहिए। दादा-दादी से लेकर नाना-नानी तक से। यह एक सामाजिक दस्तावेज घर के ड्रांइग रूम में टांग दिया जाए. सच या झूठ आने वाला मेहमान समझ जाएगा कि बेटियों ने पूछना शुरू कर दिया है। भारत धीरे-धीरे जोड़ने वाला और समस्याओं के कीचड़ में लथर-पथर करने वाला मुल्क है। नया साल बहुत कुछ नया लेकर आने वाला है, लेकिन वैसे ही जैसे आपने सेल में सस्ती कमीज अपने लिए खरीद ली और पार्टी में पहनकर चले गए। यह अब तय करना ही होगा कि सनातन समस्याओं का क्या करें।.....

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