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Sunday, September 14, 2008

यह आत्ममंथन का दिन है :

यह आत्ममंथन का दिन है

परदे के पीछे अंग्रेजों द्वारा फिल्म पर लागू सेंसर की एकमात्र फिक्र यह थी कि देशप्रेम का संदेश इसमें नहीं हो। भारतीय फिल्मकारों ने इस कानून को धता बताकर देशप्रेम का संदेश कुछ फिल्मों में दिया। महाभारत के पात्र विदुर के जीवन पर बनी फिल्म में विदुर को महात्मा गांधी की तरह पेश किया गया। शांताराम ने उदयकाल में देशप्रेम का संदेश दिया। इतिहास आधारित विषयों पर बनी फिल्मों में भरपूर राष्ट्रप्रेम प्रस्तुत हुआ।
‘किस्मत’ जैसी व्यावसायिक फिल्म में राष्ट्रप्रेम का गीत ‘दूर हटो ए दुनिया वालों’ डाला गया। आजादी के बाद रमेश सहगल की दिलीप कुमार अभिनीत ‘शहीद’ और ‘26 जनवरी’ में जबरदस्त संदेश प्रस्तुत किया गया। ‘जागृति’ में गाना था ‘हम लाए हैं तूफां से कश्ती निकालकर, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल कर’ क्या उस ‘कश्ती’ को हमने संभाल कर रखा?
उस ‘कश्ती’ को डुबाया किसने? क्या आज हमारे दिल में देश के लिए उतना ही प्यार है जितना 1947 के पहले था? यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि महात्मा गांधी के आंदोलन में पूरे राष्ट्र ने अपनी पूरी ताकत लगा दी और ये परम राष्ट्रवादी लोग आजादी के बाद भ्रष्ट हो गए? स्वतंत्रता संग्राम में जेल की सजा भुगतने वाले लोग चुनाव जीतकर ‘भाग्य विधाता’ होते ही भ्रष्ट हो गए। क्या आजादी का अर्थ भ्रष्ट होना ही निकाला गया? वह कौन सी बात है कि गांधीजी की हत्या के पहले ही गैर गांधीवादी होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी।
यह सभी क्षेत्रों में हुआ, इसलिए आजादी के बाद बनी राष्ट्र प्रेम की अधिकांश फिल्मों में कोरी नारेबाजी है और छद्म राष्ट्रप्रेम को बॉक्स ऑफिस पर भुनाया गया है। राकेश मेहरा की ‘रंग दे बसंती’ और राजकुमार हीरानी की ‘मुन्नाभाई..’ इसके अपवाद मात्र हैं? राष्ट्रप्रेम की धारा हमेशा समाज की सतह के भीतर प्रवाहित रहती है और गांधीजी जैसे अनूठे लोगों के आह्वान पर वह सतह के ऊपर आती है। यह क्यों होता है कि आम गरीब व्यक्ति ही हमेशा राष्ट्र की बात सोचता है और श्रेष्ठ वर्ग तथा शिखर पर पहुंचे लोगों की प्राथमिकता राष्ट्र नहीं होती?
क्या देश नामक विचार हमें गैर भारतीय लगता है। अवतारवाद की हमारे भीतर पैठी अवधारणा हमें यह सपना देखना सिखाती है कि कोई ‘चमत्कार’ राष्ट्र की रक्षा करेगा? अवाम की ताकत राष्ट्र की धमनियों में रक्त बनकर बहती है। जब तक हम व्यक्ति को महत्व और सम्मान देना नहीं सीखते तब तक हम अवतारवाद पर ही आधारित रहेंगे। हमने स्वतंत्र विचार प्रक्रिया को सबसे पहले खत्म करने की कोशिश की है ताकि हम भीड़ को जन्म देकर भीड़ से शासित हों।
देशप्रेम सिनेमा में फामरूला बनने के पहले समाज में रस्म अदायगी बना है। आजादी के पहले के फिल्मकारों के राष्ट्रप्रेम में अंतर रहा है। पहले वह उच्च श्रेणी की भावना थी और बाद में महज ‘बॉक्स ऑफिस’ फिल्मकारों का यह परिवर्तन उतने फिक्र की बात नहीं है जितनी कि अन्य क्षेत्रों में।
पहले के उद्योगपतियों में लाभ कमाने के साथ कोई समाज कल्याण की भावना भी थी और बाद के उद्योगपतियों का केंद्रीय विचार लाभ ही रहा है। स्वतंत्रता दिवस आत्ममंथन का दिन है और हम सब विचार करें कि सांस्कृतिक शून्य और भ्रष्टाचार कहां से आया और कैसे खत्म होगा। इससे भी जरूरी है यह सोचना कि आज कितने प्रतिशत भारतीय सचमुच में मन, वचन और कर्म से भारतीय हैं।

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